रेलगाड़ी से दिन के उजालों में बाहर देखा तो दिख गए
रेलगाड़ी से दिन के उजालों में बाहर देखा तो दिख गए
मज़बूरी और रफ्तार से हारे हुए कुछ हिस्से जिस्मों केएक शहर जो रेलगाड़ी में तबदील हो गया था
एक मुद्दत से महरूम है उजालों सेइस दौड़ते भागते शहर से बाहर देखो भी अगर
तो सिवाए अंधेरे के और कुछ भी नहीं दिखतायहाँ भीड़ बढ़ती जा रही है और कम होते जा रहें हैं
वो चेहरे जिनसे कभी कोई राब्ता रहा हैएक रोज़ मन में आया भी था क्यूँ ना उतर के पीछे लौटा जाए
वो रिश्ते जो छूट गए थे उनको मुकाम पे पहुँचाया जाएएक शख्स की आँखे चूम उसके माथे को सहलाया जाए
नए अहम में जो बैठे हैं उन पुराने दोस्तों को मनाया जाए
April 11, 2025 @ 11:18 pm
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